कहानी संग्रह >> इक्यावन बाल कहानियाँ इक्यावन बाल कहानियाँक्षमा शर्मा
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बच्चों के लिए बहुत ही मनोरंजक और प्रेरणादायी कहानियाँ...
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
गाय ने पुकारा
बिशनपुर के सरपंच का नाम राजपाल था। सुमेरपुर का सरपंच केशवचन्द्र था।
दोनों गहरे मित्र थे। अक्सर एक-दूसरे के गाँव आते-जाते रहते थे। एक दोपहर
रामपाल केशव के घर पहुँचे। केशव ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। खुशबूदार
शर्बत पिलाया। मिठाई खिलाई। फिर दोनों मित्र आपस में बातचीत करने लगे कि दरवाजे पर दस्तक हुई। केशव ने जोर से कहा-‘‘अरे भाई, अन्दर आ जाओ
!’’ बाहर खड़े व्यक्ति ने आवाज सुन ली। वह अन्दर आया। उसने दोनों को नमस्कार
किया और एक ओर खड़ा हो गया। उसका नाम रामकुमार था। वह एक नामी पहलवान था।
केशव के पूछने पर रामकुमार ने बताया कि उसे दूर किसी गाँव में कुश्ती लड़ने जाना है। शाम को पहुँचना जरूरी है। बैलगाड़ी का इन्तजाम अब तक नहीं हो पाया।
यह सुनकर केशव ने कहा-‘‘तो इसमें चिन्ता की क्या बात है ? तुम मेरी बैलगाड़ी ले जाओ। तुम्हारा वहाँ समय पर पहुँचना जरूरी है। गाँव की इज्जत का सवाल है।’’
केशव की बात सुनकर रामकुमार ने उसे धन्यवाद दिया। प्रणाम करके चला गया। उसके जाने के बाद केशव ने अपने मित्र रामपाल से कहा-‘‘इस जैसा पहलवान आसपास के गाँव में तो क्या, दूर-दूर तक नहीं मिल सकता।’’
यह बात सुनकर रामपाल को कुछ अच्छा नहीं लगा। केशव की बात में तो उनके गाँव की निन्दा भी छिपी हुई थी। उस शाम वह चले तो आए। लेकिन कानों में केशव की बात गूँजती रही। फिर मन-ही-मन यह भी सोचते रहे कि क्या सचमुच अब रामकुमार जैसा दूसरा कोई पहलवान पैदा नहीं हो सकता ?
उसी दिन उन्होंने अपने गाँव किशनपुर में एक अखाड़ा खोलने का निश्चय किया। अच्छी मिट्टी का खेत चुनकर वहाँ अखाड़ा बना दिया। दूसरे किसी गाँव से कुश्ती के दाँव-पेंच सिखाने के लिए गुरु को भी बुलवाया गया। गाँव में ढोल पिटवाया गया। बच्चों और उनके माता-पिता को बताया गया कि इस अखाड़े में आने वाले बच्चों का खर्चा सरपंच जी उठाएँगे।
जल्दी ही वहाँ किशोर कुश्ती के अच्छे कारनामे दिखाने लगे। आसपास होने वाली कुश्तियों को जीतकर आने लगे। इनमें शिव नाम का लड़का तो हमेशा कुश्ती जीतकर ही आता। धीरे-धीरे ऐसा हुआ कि शिव ने जितनी भी कुश्तियाँ लड़ीं, सभी जीतीं। रामपाल को लगा कि उनका सपना बस पूरा होने-होने को है।
उन्होंने अपने मित्र केशव को खबर भेजी। कहा कि वह किशनपुर में एक दंगल आयोजित करा रहे हैं। इसमें आसपास के गाँवों के पहलवान भाग लेंगे। वह भी अपने गाँव के राजकुमार को इस दंगल में भेजें। केशव को सन्देश मिला, तो उन्हें बहुत खुशी हुई। उन्होंने राजकुमार को खबर करा दी। रामपाल से कहलवाया कि वह भी इस दंगल को देखने आएँगे। लेकिन संयोग की बात कि ऐन दंगल के दिन केशव बीमार पड़ गए और जा न सके।
उधर किशनपुर को खूब सजाया गया था। अखाड़े में तो रंग-बिरंगी झंडियाँ लगी थीं। कुश्ती देखने वालों की भीड़ जमा थी। आसपास के गाँवों से भी बहुत-से लोग वहाँ आ पहुँचे थे।
कुश्ती शुरू हुई, तो सामने बैठे रामपाल का कलेजा मुँह को आने लगा। रामकुमार शिव को खूब पछाड़ रहा था। लेकिन जल्दी ही शिव ने रामकुमार को नीचे पटका और उसे चित्त कर, उसकी छाती पर चढ़ बैठा। रामपाल ने यह देखा, तो अपनी जगह से उठ खड़े हुए। लोग ‘वाह-वाह’ कर रहे थे। रामपाल ने शिव की पीठ थपथपाई। कहा-‘‘शाबास शिव, तुमने हमारे गाँव का नाम रोशन कर दिया। आज तुम हमसे कुछ भी माँग लो।’’
यह सुन, शिव बोला-‘‘मुझे कुछ नहीं, सिर्फ आपका आशीर्वाद चाहिए।’’
मगर रामपाल ऐसे मानने वाले नहीं थे। उन्होंने बार-बार शिव से कहा तो वह बोला-‘‘देना ही है कुछ, तो मुझे अपनी छोटी बछिया दे दीजिए।’’
उसकी बात सुनकर रामपाल हँसने लगे-‘‘माँगनी थी तो गाय माँगते। कम-से-कम जी भरकर दूध तो पी लेते। बछिया का क्या करोगे ?’’
शिव के कहने पर कि वह छोटी-सी बछिया उसे बहुत अच्छी लगती है, रामपाल ने कहा-‘‘ठीक है, शाम को आकर ले जाना।’’
उधर रामकुमार भारी कदमों से गाँव की तरफ लौट रहा था। उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि शिव जैसा लड़का उसे हरा देगा। जीवन में पहली बार उसने इतनी करारी हार झेली थी।
उसी शाम को जब शिव रामपाल के यहाँ पहुँचा, तो वह उसका इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने बछिया की रस्सी शिव को थमाते हुए कहा-‘‘लो शिव, सँभालो इसे।’’ शिव ने बछिया की रस्सी पकड़ी और अपने घर ले आया। उसका नाम रखा गुलाबो।
शिव गुलाबो की खूब सेवा करता। उसके लिए नरम घास लाता। दाना-पानी देता। जो कुछ खुद खाता, पहले उसका हिस्सा निकालता। उसके बैठने की जगह की सफाई करता। जल्दी ही गुलाबो उसे खूब पहचानने लगी। उसकी आवाज सुनकर वह उसे रँभा-रँभाकर बुलाने लगी। वह पास आता, तो अपने माथे को उसके शरीर से रगड़ती। जैसे कहना चाहती हो-‘इतनी देर से क्यों आए ?’ उसका हाथ चाटती। धीरे-धीरे वह बड़ी होने लगी।
शिव भी जहाँ जाता, उसे अपने संग ले जाता। आसपास के गाँवों में यह बात फैलने लगी थी कि शिव की गाय उसके लिए बहुत भाग्यशाली है। वह जहाँ भी उसे साथ ले जाता है, कुश्ती जीतकर आता है।
सिर्फ कुश्तियों में ही क्यों, शिव गुलाबो को आसपास लगने वाले पशु-मेलों में भी ले जाने लगा। गुलाबो इतनी सुन्दर और प्यारी गाय थी कि जहाँ भी जाती, इनाम जीतकर आती। उसके गले में घण्टी पड़ी रहती। मोटे मोतियों की माला पहनाई जाती। सींगों पर रेशमी रिबनों के बने फूल बाँधे जाते। चलती तो गायों की महारानी से कम न लगती।
एक दिन शिव को किसी जरूरी काम से कहीं जाना था। वह गुलाबो के दाना-पानी का प्रबन्ध करके चला गया। अपने माता-पिता से कह गया कि वह गुलाबो का ध्यान रखें। शिव उस शाम नहीं लौट सका। अगले दिन जब आया, तो घर में कोहराम मचा हुआ था। रात में गुलाबो को कोई खूँटे से खोलकर ले गया था।
शिव परेशान हो उठा। कई दिन बीत गए। इस दौरान उसने ठीक से खाया-पिया नहीं। उसका किसी काम में मन न लगता।
एक दिन शिव को सरपंच रामपाल ने बुलाया। शिव वहाँ पहुँचा। उसका उदास चेहरा देखकर रामपाल ने कहा-‘‘मुझे पता है शिव, गुलाबो को कोई चुरा ले गया है। लेकिन यदि वह नहीं मिली, तो हम तुम्हें दूसरी गाय दे देंगे।’’
रामपाल की बात सुनकर शिव कुछ न बोला। वह तो मन-ही-मन तय कर चुका था कि यदि गुलाबो नहीं मिली, तो वह दूसरी गाय नहीं पालेगा।
तभी रामपाल ने कहा-‘‘दरअसल शिव मैंने तुम्हें जरूरी काम से बुलाया है। तुम्हें सुमेरपुर जाना होगा। वहाँ मेरे मित्र केशव रहते हैं। बहुत समय से बीमार हैं। उनके लिए मैंने एक मशहूर वैद्य से दवा मँगाई है। तुम इसे जाकर उन्हें दे आओ।’’
काम ऐसा था कि शिव फौरन तैयार हो गया। सुमेरपुर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई।
केशवचन्द्र के घर पहुँचकर उसने उन्हें दवा दी। रामपाल का सन्देश दिया कि जल्दी ही वह उनसे मिलने आएँगे। केशवचन्द्र उसे देखकर बहुत खुश हुए। बोले-‘‘पहले तो इस इलाके में एक ही नामी पहलवान था, रामकुमार। अब तुम भी हो, यह जानकर अच्छा लगता है।’’
शिव लौटने लगा, तो उसे एक घर के दरवाजे के सामने रामकुमार खड़ा दिखाई दिया। वह उसी का घर था।
रामकुमार शिव के पास आ उसका हालचाल पूछने लगा। दोनों जोर-जोर से बातें करने लगे। तभी शिव को गाय के रँभाने की आवाज सुनाई दी। वह सोचने लगा कि यह तो गुलाबो की आवाज है। लेकिन हो सकता है कि उसके मन का वहम ही हो। गाय फिर रँभाई। अब शिव को पूरा विश्वास हो गया कि गुलाबो आसपास ही कहीं है। वह बिना सोचे-समझे उधर दौड़ पड़ा, जिधर से आवाज आई थी। रामकुमार के घर की सबसे अन्दर वाली कोठरी में गुलाबो बँधी थी। उसने शिव की आवाज को पहचान लिया था। शिव उसके गले से लिपट गया, तो गुलाबो उसे चाटने लगी।
दूर खड़ा रामकुमार यह देख रहा था। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। बोला-‘‘माफ करना शिव। मेरे मन में पाप आ गया था। सोचता था कि जब तक यह गाय तुम्हारे साथ रहेगी, तब तक कभी तुम्हें नहीं हरा सकूँगा। इसीलिए मैं इसे चुरा लिया। मगर जब से यह यहाँ आई है, इसने चारे को मुँह नहीं लगाया। आज तुम्हें यहाँ देखकर मैं चौंका जरूर था कि तुम यहाँ कैसे ? लेकिन फिर मैंने सोचा था कि तुम्हें पता कैसे चलेगा कि गाय कहाँ है। मगर तुम्हारी आवाज सुनकर यह तुम्हें पुकारने लगेगी, इसका तो मुझे अन्दाजा तक नहीं था। ले जाओ भाई अपनी गाय और मुझे भी माफ कर देना।’’ कहता हुआ रामकुमार वहाँ से चला गया।
केशव के पूछने पर रामकुमार ने बताया कि उसे दूर किसी गाँव में कुश्ती लड़ने जाना है। शाम को पहुँचना जरूरी है। बैलगाड़ी का इन्तजाम अब तक नहीं हो पाया।
यह सुनकर केशव ने कहा-‘‘तो इसमें चिन्ता की क्या बात है ? तुम मेरी बैलगाड़ी ले जाओ। तुम्हारा वहाँ समय पर पहुँचना जरूरी है। गाँव की इज्जत का सवाल है।’’
केशव की बात सुनकर रामकुमार ने उसे धन्यवाद दिया। प्रणाम करके चला गया। उसके जाने के बाद केशव ने अपने मित्र रामपाल से कहा-‘‘इस जैसा पहलवान आसपास के गाँव में तो क्या, दूर-दूर तक नहीं मिल सकता।’’
यह बात सुनकर रामपाल को कुछ अच्छा नहीं लगा। केशव की बात में तो उनके गाँव की निन्दा भी छिपी हुई थी। उस शाम वह चले तो आए। लेकिन कानों में केशव की बात गूँजती रही। फिर मन-ही-मन यह भी सोचते रहे कि क्या सचमुच अब रामकुमार जैसा दूसरा कोई पहलवान पैदा नहीं हो सकता ?
उसी दिन उन्होंने अपने गाँव किशनपुर में एक अखाड़ा खोलने का निश्चय किया। अच्छी मिट्टी का खेत चुनकर वहाँ अखाड़ा बना दिया। दूसरे किसी गाँव से कुश्ती के दाँव-पेंच सिखाने के लिए गुरु को भी बुलवाया गया। गाँव में ढोल पिटवाया गया। बच्चों और उनके माता-पिता को बताया गया कि इस अखाड़े में आने वाले बच्चों का खर्चा सरपंच जी उठाएँगे।
जल्दी ही वहाँ किशोर कुश्ती के अच्छे कारनामे दिखाने लगे। आसपास होने वाली कुश्तियों को जीतकर आने लगे। इनमें शिव नाम का लड़का तो हमेशा कुश्ती जीतकर ही आता। धीरे-धीरे ऐसा हुआ कि शिव ने जितनी भी कुश्तियाँ लड़ीं, सभी जीतीं। रामपाल को लगा कि उनका सपना बस पूरा होने-होने को है।
उन्होंने अपने मित्र केशव को खबर भेजी। कहा कि वह किशनपुर में एक दंगल आयोजित करा रहे हैं। इसमें आसपास के गाँवों के पहलवान भाग लेंगे। वह भी अपने गाँव के राजकुमार को इस दंगल में भेजें। केशव को सन्देश मिला, तो उन्हें बहुत खुशी हुई। उन्होंने राजकुमार को खबर करा दी। रामपाल से कहलवाया कि वह भी इस दंगल को देखने आएँगे। लेकिन संयोग की बात कि ऐन दंगल के दिन केशव बीमार पड़ गए और जा न सके।
उधर किशनपुर को खूब सजाया गया था। अखाड़े में तो रंग-बिरंगी झंडियाँ लगी थीं। कुश्ती देखने वालों की भीड़ जमा थी। आसपास के गाँवों से भी बहुत-से लोग वहाँ आ पहुँचे थे।
कुश्ती शुरू हुई, तो सामने बैठे रामपाल का कलेजा मुँह को आने लगा। रामकुमार शिव को खूब पछाड़ रहा था। लेकिन जल्दी ही शिव ने रामकुमार को नीचे पटका और उसे चित्त कर, उसकी छाती पर चढ़ बैठा। रामपाल ने यह देखा, तो अपनी जगह से उठ खड़े हुए। लोग ‘वाह-वाह’ कर रहे थे। रामपाल ने शिव की पीठ थपथपाई। कहा-‘‘शाबास शिव, तुमने हमारे गाँव का नाम रोशन कर दिया। आज तुम हमसे कुछ भी माँग लो।’’
यह सुन, शिव बोला-‘‘मुझे कुछ नहीं, सिर्फ आपका आशीर्वाद चाहिए।’’
मगर रामपाल ऐसे मानने वाले नहीं थे। उन्होंने बार-बार शिव से कहा तो वह बोला-‘‘देना ही है कुछ, तो मुझे अपनी छोटी बछिया दे दीजिए।’’
उसकी बात सुनकर रामपाल हँसने लगे-‘‘माँगनी थी तो गाय माँगते। कम-से-कम जी भरकर दूध तो पी लेते। बछिया का क्या करोगे ?’’
शिव के कहने पर कि वह छोटी-सी बछिया उसे बहुत अच्छी लगती है, रामपाल ने कहा-‘‘ठीक है, शाम को आकर ले जाना।’’
उधर रामकुमार भारी कदमों से गाँव की तरफ लौट रहा था। उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि शिव जैसा लड़का उसे हरा देगा। जीवन में पहली बार उसने इतनी करारी हार झेली थी।
उसी शाम को जब शिव रामपाल के यहाँ पहुँचा, तो वह उसका इन्तजार कर रहे थे। उन्होंने बछिया की रस्सी शिव को थमाते हुए कहा-‘‘लो शिव, सँभालो इसे।’’ शिव ने बछिया की रस्सी पकड़ी और अपने घर ले आया। उसका नाम रखा गुलाबो।
शिव गुलाबो की खूब सेवा करता। उसके लिए नरम घास लाता। दाना-पानी देता। जो कुछ खुद खाता, पहले उसका हिस्सा निकालता। उसके बैठने की जगह की सफाई करता। जल्दी ही गुलाबो उसे खूब पहचानने लगी। उसकी आवाज सुनकर वह उसे रँभा-रँभाकर बुलाने लगी। वह पास आता, तो अपने माथे को उसके शरीर से रगड़ती। जैसे कहना चाहती हो-‘इतनी देर से क्यों आए ?’ उसका हाथ चाटती। धीरे-धीरे वह बड़ी होने लगी।
शिव भी जहाँ जाता, उसे अपने संग ले जाता। आसपास के गाँवों में यह बात फैलने लगी थी कि शिव की गाय उसके लिए बहुत भाग्यशाली है। वह जहाँ भी उसे साथ ले जाता है, कुश्ती जीतकर आता है।
सिर्फ कुश्तियों में ही क्यों, शिव गुलाबो को आसपास लगने वाले पशु-मेलों में भी ले जाने लगा। गुलाबो इतनी सुन्दर और प्यारी गाय थी कि जहाँ भी जाती, इनाम जीतकर आती। उसके गले में घण्टी पड़ी रहती। मोटे मोतियों की माला पहनाई जाती। सींगों पर रेशमी रिबनों के बने फूल बाँधे जाते। चलती तो गायों की महारानी से कम न लगती।
एक दिन शिव को किसी जरूरी काम से कहीं जाना था। वह गुलाबो के दाना-पानी का प्रबन्ध करके चला गया। अपने माता-पिता से कह गया कि वह गुलाबो का ध्यान रखें। शिव उस शाम नहीं लौट सका। अगले दिन जब आया, तो घर में कोहराम मचा हुआ था। रात में गुलाबो को कोई खूँटे से खोलकर ले गया था।
शिव परेशान हो उठा। कई दिन बीत गए। इस दौरान उसने ठीक से खाया-पिया नहीं। उसका किसी काम में मन न लगता।
एक दिन शिव को सरपंच रामपाल ने बुलाया। शिव वहाँ पहुँचा। उसका उदास चेहरा देखकर रामपाल ने कहा-‘‘मुझे पता है शिव, गुलाबो को कोई चुरा ले गया है। लेकिन यदि वह नहीं मिली, तो हम तुम्हें दूसरी गाय दे देंगे।’’
रामपाल की बात सुनकर शिव कुछ न बोला। वह तो मन-ही-मन तय कर चुका था कि यदि गुलाबो नहीं मिली, तो वह दूसरी गाय नहीं पालेगा।
तभी रामपाल ने कहा-‘‘दरअसल शिव मैंने तुम्हें जरूरी काम से बुलाया है। तुम्हें सुमेरपुर जाना होगा। वहाँ मेरे मित्र केशव रहते हैं। बहुत समय से बीमार हैं। उनके लिए मैंने एक मशहूर वैद्य से दवा मँगाई है। तुम इसे जाकर उन्हें दे आओ।’’
काम ऐसा था कि शिव फौरन तैयार हो गया। सुमेरपुर पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई।
केशवचन्द्र के घर पहुँचकर उसने उन्हें दवा दी। रामपाल का सन्देश दिया कि जल्दी ही वह उनसे मिलने आएँगे। केशवचन्द्र उसे देखकर बहुत खुश हुए। बोले-‘‘पहले तो इस इलाके में एक ही नामी पहलवान था, रामकुमार। अब तुम भी हो, यह जानकर अच्छा लगता है।’’
शिव लौटने लगा, तो उसे एक घर के दरवाजे के सामने रामकुमार खड़ा दिखाई दिया। वह उसी का घर था।
रामकुमार शिव के पास आ उसका हालचाल पूछने लगा। दोनों जोर-जोर से बातें करने लगे। तभी शिव को गाय के रँभाने की आवाज सुनाई दी। वह सोचने लगा कि यह तो गुलाबो की आवाज है। लेकिन हो सकता है कि उसके मन का वहम ही हो। गाय फिर रँभाई। अब शिव को पूरा विश्वास हो गया कि गुलाबो आसपास ही कहीं है। वह बिना सोचे-समझे उधर दौड़ पड़ा, जिधर से आवाज आई थी। रामकुमार के घर की सबसे अन्दर वाली कोठरी में गुलाबो बँधी थी। उसने शिव की आवाज को पहचान लिया था। शिव उसके गले से लिपट गया, तो गुलाबो उसे चाटने लगी।
दूर खड़ा रामकुमार यह देख रहा था। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। बोला-‘‘माफ करना शिव। मेरे मन में पाप आ गया था। सोचता था कि जब तक यह गाय तुम्हारे साथ रहेगी, तब तक कभी तुम्हें नहीं हरा सकूँगा। इसीलिए मैं इसे चुरा लिया। मगर जब से यह यहाँ आई है, इसने चारे को मुँह नहीं लगाया। आज तुम्हें यहाँ देखकर मैं चौंका जरूर था कि तुम यहाँ कैसे ? लेकिन फिर मैंने सोचा था कि तुम्हें पता कैसे चलेगा कि गाय कहाँ है। मगर तुम्हारी आवाज सुनकर यह तुम्हें पुकारने लगेगी, इसका तो मुझे अन्दाजा तक नहीं था। ले जाओ भाई अपनी गाय और मुझे भी माफ कर देना।’’ कहता हुआ रामकुमार वहाँ से चला गया।
शेर का पता
पापा कई दिन से कह रहे थे कि पप्पू के लिए एक नई किताब लाएँगे, मगर हर रोज
भूल जाते। पप्पू घर से निकलने से पहले रोज उन्हें याद दिलाता।
उस शाम जब पापा लौटे तो एक रंग-बिरंगी शेर वाली किताब मेरे पढ़ने के लिए ले आए।
पप्पू ने पढ़ा-एक शेर था।
पप्पू मन-ही-मन बुदबुदाया-एक शेर था, वह जंगल में रहता था।
पप्पू को लगा कि वह किताब के पंखों पर सवार हो दूर उड़ा चला जा रहा है।
अचानक एक जगह किताब नीचे और नीचे उतरने लगी। पप्पू पास उड़ते बादलों को छू-छूकर खुश हो रहा था। वह सोच रहा था कि बादलों पर ही सवार हो जाए, मगर किताब इतनी तेज गति से उड़ रही थी कि पप्पू रोक नहीं सका।
किताब नीचे उतरी तो पप्पू एक ओर खड़ा हो गया। किताब बन्द हो गई। सामने घना जंगल था। चिड़ियों की आवाज आ रही थी। पप्पू को खुद ताज्जुब हो रहा था; वह कभी अपने माता-पिता के बिना अकेले नहीं गया था। जब पढ़ने से ऊब जाता तो टी.वी. देखने लगता। क्या करता ! जिस बहुमंजिली इमारत में रहता था, वहाँ खेलने की कोई जगह नहीं थी। था तो एक रेशमी घासवाला पार्क, जिसमें तरह-तरह के फूल थे। जब भी बच्चे उस पार्क में खेलने आते, माली उन्हें खदेड़ देता-‘‘चलो, भागो यहाँ से ! खेलने से घास खराब हो जाती है। फूल मुरझा जाते हैं।’’
बालक हैरानी में सोचते-कैसी अजीब है माली की दुनिया, जहाँ बच्चों की किलकारी से फूल मुरझा जाते हैं ? बच्चे मनमानी करते, तब माली उनके घर तक पहुँच माता-पिता से उनकी शिकायत करता। बच्चों के लिए माली किसी यमदूत की तरह था।
बड़े आश्चर्य की बात थी कि यहाँ जंगल में, जहाँ किताब ने पप्पू को उतारा था, बिना अपने माता-पिता के उसे जरा-सा भी डर नहीं लग रहा था।
पप्पू ने इधर देखा, कभी उधर। बहुत-से पेड़ थे। खूब अँधेरा भी था। दूर हाथी चिंघाड़ रहा था। हवा भी तेज थी। पप्पू को जंगल का रास्ता मालूम नहीं था। कैसे जाए ? फिर भी वह आगे बढ़ा। कुछ दूर गया था कि एक बड़ के पेड़ की जड़ों में उलझ गया। बड़ी मुश्किल से निकला तो एक लम्बा-चौड़ा काँटा उसके पैर में घुस गया। उसे कैसे निकाले ? वह रोने लगा। इतनी देर में पहली बार उसे अपनी मम्मी की याद आई। मम्मी होती तो तुरन्त सेफ्टी पिन से काँटा निकाल देतीं। बहुत बार जब वह स्कूल के मैदान से खेलकर लौटता था तो मम्मी पहले उसे चुप करातीं, फिर फटाफट काँटा निकाल देतीं।
लेकिन यहाँ मम्मी नहीं थीं। उसे शेर ढूँढ़ना था, लेकिन शेर ‘मिलेगा कहाँ ? उसने बड़ की जड़ों से पूछना चाहा जिनमें वह अभी फँसा था। पर जड़ें हिलीं हवा से, जैसे कह रही हों-‘हमें नहीं पता। हमें नहीं पता।’
तभी बड़ की शाखा से एक सेफ्टी पिन टपकी-‘‘शेर बाद में ढूँढ़ना, पहले काँटा तो निकाल ले।’’
पप्पू काँटा निकालने लगा कि पिन से आवाज मम्मी की तरह आई-‘‘धीरे से बेटा, धीरे से।’’ काँटा निकालकर पप्पू ने पिन अपनी कमीज पर चिपका ली।
फिर आगे चला। वहाँ उसे झाड़ी में घुसती एक सफेद बिल्ली दिखाई दी। बिल्ली पप्पू को देखकर रुक गई। वह पूँछ हिलाती पीली चमकीली आँखों से उसे देखने लगी।
पप्पू को पापा ने एक बार बताया था कि बिल्ली शेर की मौसी होती है।
‘‘शेर की मौसी, शेर की मौसी ! मुझे बताओ शेर कहाँ है ? मुझे उसे ढूँढ़ना है।’’ कहता हुआ पप्पू बिल्ली की तरफ आगे बढ़ा।
उसे आता देख बिल्ली ने एक छलाँग लगाई और झाड़ियों में गायब हो गई। झाड़ियों में से एक चूहे के चिचियाने की आवाज आई, जरूर बिल्ली ने चूहे का शिकार किया था।
पप्पू ताज्जुब में था। शेर जंगल का राजा होता है। राजा का सब आदेश मानते हैं, मगर यहाँ तो अजीब हालत है। राजा के बारे में कोई बताने तक को तैयार नहीं है।
पप्पू को कोई और रास्ता नहीं सूझा तो उसने अपनी किताब पलटी-किताब से ही पता करे। वहाँ लिखा था-शेर एक गुफा में रहता था। ओफ-ओह ! यह भी कोई बात हुई ? लेखक ने यह लिख तो दिया कि शेर गुफा में रहता था, मगर गुफा तक पहुँचने का रास्ता कहाँ है ? अब इस किताब को पढ़कर कोई बच्चा शेर की गुफा तक पहुँचना चाहे तो कैसे पहुँचे ? उसने किताब आगे पलटी। लिखा था कि शेर रात में पानी पीने नदी की तरफ जाता है।
‘अच्छा तो मुझे रात होने से पहले नदी तक पहुँच जाना चाहिए। शेर जब पानी पीकर वापस जाएगा तो मैं पीछे-पीछे उसकी गुफा तक पहुँच जाऊँगा।’ सोचकर पप्पू दौड़ चला।
रास्ते में उसे एक गधा मिला। गधा आराम से घास चर रहा था और कान उठाकर इधर-उधर देखता जा रहा था, कहीं कोई खतरा तो नहीं ? खतरा तो नहीं ?
उसने पप्पू को दौड़ते देखा तो एक दुलत्ती झाड़ी और दौड़ पड़ा। उसे लग रहा था कि शायद पप्पू उसी का पीछा करता आ रहा है। पप्पू ने उसे आवाज भी लगाई, मगर वह रुका नहीं।
पप्पू परेशान था-किसने कहा था कि किताब पर बैठकर जंगल में चला जाए ! पापा ने किताब दी थी तो बैठकर आराम से उसे पढ़ता। कहानी खत्म हो जाती तो आराम से सो जाता, या चैस, कैरम, लूडो खेलता। और कुछ नहीं तो टी.वी. देख लेता, या अपने दोस्तों के साथ पैलादुग्गो के मजे लेता। वह चैन से बैठने वाला नहीं था। मम्मी तो कभी-कभी प्यार से कहती भी थी कि पप्पू के पैर में चक्कर है, एक मिनट भी आराम से नहीं बैठता। और सचमुच किताब के मिलते ही वह आराम से नहीं बैठा था। वह तुरत-फुरत उस शेर को ढूँढ़ने निकल पड़ा था जो किताब में बना था; जो एक गुफा में रहता था। शहरों में तो मकानों के नम्बर होते हैं। अब गाँवों में भी होने लगे हैं। लेकिन जंगल में रहने वाले शेर की गुफा का कोई नम्बर नहीं था, न ही पता-ठिकाना था।
जंगल में तो पहले ही अँधेरा था। यह जंगल भी कैसा होता है ? कोई भी चीज कहीं भी निकल आती है। कहीं घास, कहीं ऊँचा पेड़, कहीं नीचा पेड़ तो कहीं झाड़ी, कहीं लम्बा-चौड़ा मैदान। सारी की सारी चीजें बेतरतीब, लोगों ने इसीलिए तो जंगल नहीं काट डाले, जिससे कि वे अपने मन से चीजें उगा सकें। मगर अपने मन की चीजें भी हमेशा नहीं बनी रहतीं। पप्पू को एक बड़ी-सी चट्टान दिखाई दी वह वहाँ बैठ गया। वह बहुत उदास था-क्या करे ! उसी समय बिल्कुल उसके सामने एक लंगूर कूदा। काले मुँह वाला लंगूर उसके सामने आकर देखने लगा। बोला-‘‘अरे बच्चे, अकेले इस जंगल में क्या कर रहे हो ?’’
‘‘मुझे शेर ढूँढ़ना है।’’
‘‘शेर ?’’ लंगूर हँसने लगा-‘‘क्यों भई, तुम्हें शेर ढूँढ़ने की क्या जरूरत आ पड़ी ? क्या शिकार करोगे ?’’
‘‘शिकार ?’’ पप्पू हँसने लगा-‘‘नहीं-नहीं, मैं तो बस, शेर को देखने आया था कि असली का शेर किताब-जैसा होता है या नहीं।’’
‘‘किताब में शेर ? मुझे भी दिखाओ किताब का शेर। मैंने आज तक नहीं देखा। असली शेर तो मैंने बहुत देखे हैं। पहले इस जंगल में बहुत-से शेर थे।
लाओ दिखाओ, किताब कहाँ है ?’’
पप्पू ने किताब लंगूर को दे दी। लंगूर ने एक झपट्टा मारा तो किताब फटते-फटते बची।
‘‘अरे भई, तुम जरा धीरे-धीरे किताब के पन्ने पलटो। मेरे पापा ने लाकर दी है। फट गई तो बस देख लेना !’’ पप्पू चीखा।
लंगूर धीरे-धीरे किताब पलटने लगा-‘‘अरे, तो यह होता है तुम्हारी किताबों का शेर ? लग तो बहुत अच्छा रहा है। रंग भी बहुत चमकीला है। असली शेर के रंग इतने चमकीले नहीं होते। उसके पास से बदबू भी बहुत आती है, जबकि इस शेर में से तो खुशबू आ रही है।’’
‘‘तो यह शेर की खुशबू थोड़े ही है ! यह तो मेरी मम्मी के परफ्यूम की बोतल से कुछ बूँदें इस किताब पर गिर गई थीं।’’ पप्पू बोला।
लंगूर बहुत देर तक किताब उलटता-पलटता रहा तो पप्पू बोर हो गया। चीखकर बोला-‘‘तुम इस किताब का पीछा छोड़ो और शेर के बारे में बताओ। इतनी देर हो गई ! मुझे तेज भूख भी लगी है।’’
‘‘भूख लगी है ? ठहरो, यहाँ पास ही झरबेरी की झाड़ियाँ हैं। उन पर बहुत रसीले बेर लगे हैं। मैं थोड़े-से तुम्हारे लिए ले आता हूँ।’’
लंगूर जाने को हुआ तो पप्पू बोला-‘‘मैं भी तुम्हारे साथ बेर तोड़ने के लिए चलूँगा।’’
‘‘जैसी तुम्हारी मर्जी। मगर मैं तुम्हें बेर नहीं तोड़ने दूँगा। तुम्हारे काँटे चुभ जाएँगे।’’
लंगूर कूदता-फाँदता चला। पप्पू अपनी किताब उठाए उसके पीछे-पीछे आ रहा था कि उसके मुँह से एकाएक चीख निकल गई। मिट्टी के एक ढूह में बनें बिल में एक साँप पूँछ के बल घुस रहा था। लंगूर ने पीछे मुड़कर पूछा-‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘वो काला साँप !’’ पप्पू का घबराहट के मारे बुरा हाल था।
‘‘अरे वह बेचारा दिन-भर का थका-हारा आराम करना चाहता है। तुमसे कुछ नहीं कहेगा।’’
‘‘मगर हमारी किताब वाले साँप के काटने से तो जहर चढ़ जाता है।’’
‘‘तुम्हारी किताब वाला साँप गन्दा होगा। बच्चों को प्यार नहीं करता होगा।’’ लंगूर इधर से उधर कूदता हुआ बोला।
अचानक पप्पू ने देखा कि हवा कुछ सौंधी-सौंधी-सी आ रही है।
‘‘हमें और कितना चलना है ?’’
‘‘बस, अब ज्यादा नहीं।’’
पप्पू को लगा यहाँ कुछ हरियाली है।
‘‘मुझे प्यास लगी है।’’ उसने लंगूर से कहा।
‘‘तो चलो नदी पास में है।’’
‘नदी ?’’ पप्पू खुशी से ताली बजाने लगा-‘‘मैं नदी ही तो ढूँढ़ रहा था। वहीं तो रात को शेर पानी पीने आएगा।’’
‘‘मैं तुम्हारे लिए बेर लेकर आता हूँ। तब तक तुम पानी पी लो।’’ कहता हुआ लंगूर उछलता हुआ चला गया।
पप्पू धीरे-धीरे नदी के पास पहुँचा। बहुत देर तक पानी में अपनी परछाईं देखता रहा। परछाईं हिल रही थी। उसने पीने के लिए हथेली में पानी लिया तो हिलती हुई परछाईं, धुँधली होकर गायब हो गई।
वह पानी पीता रहा, परछाईं बार-बार दिखती और गायब हो जाती।
पप्पू पानी पीकर लौटा तो लंगूर बरगद के पत्ते में बेर ले आया था। वे दोनों बेर खाने लगे। पके-अधपके, खट्टे-मीठे बेर बहुत स्वादिष्ट थे।
‘‘तो अब तुम यहाँ बैठकर शेर के आने का इन्ताजार करोगे ?’’ लंगूर ने पूछा।
‘‘हाँ, मगर...अगर शेर नहीं या तो ? क्या पता उसे आज प्यास न लगे ?’’
लंगूर ने पप्पू को ध्यान से देखा-‘‘तुम सच कहते हो शेर नहीं आएगा। मगर इसलिए नहीं कि उसे प्यास नहीं लगीं।’’
‘‘तो फिर क्यों नहीं ?’’
‘‘इसलिए कि इस जंगल में एक ही शेर बचा था। उसे भी चिड़ियाघर वाले पकड़कर ले गए।’’
पप्पू के आँसू निकल आए। वह शेर को ढूँढ़ने जंगल में आया था और शेर चिड़ियाघर में था। उसकी कहानी की किताब खत्म हो गई थी।
उस शाम जब पापा लौटे तो एक रंग-बिरंगी शेर वाली किताब मेरे पढ़ने के लिए ले आए।
पप्पू ने पढ़ा-एक शेर था।
पप्पू मन-ही-मन बुदबुदाया-एक शेर था, वह जंगल में रहता था।
पप्पू को लगा कि वह किताब के पंखों पर सवार हो दूर उड़ा चला जा रहा है।
अचानक एक जगह किताब नीचे और नीचे उतरने लगी। पप्पू पास उड़ते बादलों को छू-छूकर खुश हो रहा था। वह सोच रहा था कि बादलों पर ही सवार हो जाए, मगर किताब इतनी तेज गति से उड़ रही थी कि पप्पू रोक नहीं सका।
किताब नीचे उतरी तो पप्पू एक ओर खड़ा हो गया। किताब बन्द हो गई। सामने घना जंगल था। चिड़ियों की आवाज आ रही थी। पप्पू को खुद ताज्जुब हो रहा था; वह कभी अपने माता-पिता के बिना अकेले नहीं गया था। जब पढ़ने से ऊब जाता तो टी.वी. देखने लगता। क्या करता ! जिस बहुमंजिली इमारत में रहता था, वहाँ खेलने की कोई जगह नहीं थी। था तो एक रेशमी घासवाला पार्क, जिसमें तरह-तरह के फूल थे। जब भी बच्चे उस पार्क में खेलने आते, माली उन्हें खदेड़ देता-‘‘चलो, भागो यहाँ से ! खेलने से घास खराब हो जाती है। फूल मुरझा जाते हैं।’’
बालक हैरानी में सोचते-कैसी अजीब है माली की दुनिया, जहाँ बच्चों की किलकारी से फूल मुरझा जाते हैं ? बच्चे मनमानी करते, तब माली उनके घर तक पहुँच माता-पिता से उनकी शिकायत करता। बच्चों के लिए माली किसी यमदूत की तरह था।
बड़े आश्चर्य की बात थी कि यहाँ जंगल में, जहाँ किताब ने पप्पू को उतारा था, बिना अपने माता-पिता के उसे जरा-सा भी डर नहीं लग रहा था।
पप्पू ने इधर देखा, कभी उधर। बहुत-से पेड़ थे। खूब अँधेरा भी था। दूर हाथी चिंघाड़ रहा था। हवा भी तेज थी। पप्पू को जंगल का रास्ता मालूम नहीं था। कैसे जाए ? फिर भी वह आगे बढ़ा। कुछ दूर गया था कि एक बड़ के पेड़ की जड़ों में उलझ गया। बड़ी मुश्किल से निकला तो एक लम्बा-चौड़ा काँटा उसके पैर में घुस गया। उसे कैसे निकाले ? वह रोने लगा। इतनी देर में पहली बार उसे अपनी मम्मी की याद आई। मम्मी होती तो तुरन्त सेफ्टी पिन से काँटा निकाल देतीं। बहुत बार जब वह स्कूल के मैदान से खेलकर लौटता था तो मम्मी पहले उसे चुप करातीं, फिर फटाफट काँटा निकाल देतीं।
लेकिन यहाँ मम्मी नहीं थीं। उसे शेर ढूँढ़ना था, लेकिन शेर ‘मिलेगा कहाँ ? उसने बड़ की जड़ों से पूछना चाहा जिनमें वह अभी फँसा था। पर जड़ें हिलीं हवा से, जैसे कह रही हों-‘हमें नहीं पता। हमें नहीं पता।’
तभी बड़ की शाखा से एक सेफ्टी पिन टपकी-‘‘शेर बाद में ढूँढ़ना, पहले काँटा तो निकाल ले।’’
पप्पू काँटा निकालने लगा कि पिन से आवाज मम्मी की तरह आई-‘‘धीरे से बेटा, धीरे से।’’ काँटा निकालकर पप्पू ने पिन अपनी कमीज पर चिपका ली।
फिर आगे चला। वहाँ उसे झाड़ी में घुसती एक सफेद बिल्ली दिखाई दी। बिल्ली पप्पू को देखकर रुक गई। वह पूँछ हिलाती पीली चमकीली आँखों से उसे देखने लगी।
पप्पू को पापा ने एक बार बताया था कि बिल्ली शेर की मौसी होती है।
‘‘शेर की मौसी, शेर की मौसी ! मुझे बताओ शेर कहाँ है ? मुझे उसे ढूँढ़ना है।’’ कहता हुआ पप्पू बिल्ली की तरफ आगे बढ़ा।
उसे आता देख बिल्ली ने एक छलाँग लगाई और झाड़ियों में गायब हो गई। झाड़ियों में से एक चूहे के चिचियाने की आवाज आई, जरूर बिल्ली ने चूहे का शिकार किया था।
पप्पू ताज्जुब में था। शेर जंगल का राजा होता है। राजा का सब आदेश मानते हैं, मगर यहाँ तो अजीब हालत है। राजा के बारे में कोई बताने तक को तैयार नहीं है।
पप्पू को कोई और रास्ता नहीं सूझा तो उसने अपनी किताब पलटी-किताब से ही पता करे। वहाँ लिखा था-शेर एक गुफा में रहता था। ओफ-ओह ! यह भी कोई बात हुई ? लेखक ने यह लिख तो दिया कि शेर गुफा में रहता था, मगर गुफा तक पहुँचने का रास्ता कहाँ है ? अब इस किताब को पढ़कर कोई बच्चा शेर की गुफा तक पहुँचना चाहे तो कैसे पहुँचे ? उसने किताब आगे पलटी। लिखा था कि शेर रात में पानी पीने नदी की तरफ जाता है।
‘अच्छा तो मुझे रात होने से पहले नदी तक पहुँच जाना चाहिए। शेर जब पानी पीकर वापस जाएगा तो मैं पीछे-पीछे उसकी गुफा तक पहुँच जाऊँगा।’ सोचकर पप्पू दौड़ चला।
रास्ते में उसे एक गधा मिला। गधा आराम से घास चर रहा था और कान उठाकर इधर-उधर देखता जा रहा था, कहीं कोई खतरा तो नहीं ? खतरा तो नहीं ?
उसने पप्पू को दौड़ते देखा तो एक दुलत्ती झाड़ी और दौड़ पड़ा। उसे लग रहा था कि शायद पप्पू उसी का पीछा करता आ रहा है। पप्पू ने उसे आवाज भी लगाई, मगर वह रुका नहीं।
पप्पू परेशान था-किसने कहा था कि किताब पर बैठकर जंगल में चला जाए ! पापा ने किताब दी थी तो बैठकर आराम से उसे पढ़ता। कहानी खत्म हो जाती तो आराम से सो जाता, या चैस, कैरम, लूडो खेलता। और कुछ नहीं तो टी.वी. देख लेता, या अपने दोस्तों के साथ पैलादुग्गो के मजे लेता। वह चैन से बैठने वाला नहीं था। मम्मी तो कभी-कभी प्यार से कहती भी थी कि पप्पू के पैर में चक्कर है, एक मिनट भी आराम से नहीं बैठता। और सचमुच किताब के मिलते ही वह आराम से नहीं बैठा था। वह तुरत-फुरत उस शेर को ढूँढ़ने निकल पड़ा था जो किताब में बना था; जो एक गुफा में रहता था। शहरों में तो मकानों के नम्बर होते हैं। अब गाँवों में भी होने लगे हैं। लेकिन जंगल में रहने वाले शेर की गुफा का कोई नम्बर नहीं था, न ही पता-ठिकाना था।
जंगल में तो पहले ही अँधेरा था। यह जंगल भी कैसा होता है ? कोई भी चीज कहीं भी निकल आती है। कहीं घास, कहीं ऊँचा पेड़, कहीं नीचा पेड़ तो कहीं झाड़ी, कहीं लम्बा-चौड़ा मैदान। सारी की सारी चीजें बेतरतीब, लोगों ने इसीलिए तो जंगल नहीं काट डाले, जिससे कि वे अपने मन से चीजें उगा सकें। मगर अपने मन की चीजें भी हमेशा नहीं बनी रहतीं। पप्पू को एक बड़ी-सी चट्टान दिखाई दी वह वहाँ बैठ गया। वह बहुत उदास था-क्या करे ! उसी समय बिल्कुल उसके सामने एक लंगूर कूदा। काले मुँह वाला लंगूर उसके सामने आकर देखने लगा। बोला-‘‘अरे बच्चे, अकेले इस जंगल में क्या कर रहे हो ?’’
‘‘मुझे शेर ढूँढ़ना है।’’
‘‘शेर ?’’ लंगूर हँसने लगा-‘‘क्यों भई, तुम्हें शेर ढूँढ़ने की क्या जरूरत आ पड़ी ? क्या शिकार करोगे ?’’
‘‘शिकार ?’’ पप्पू हँसने लगा-‘‘नहीं-नहीं, मैं तो बस, शेर को देखने आया था कि असली का शेर किताब-जैसा होता है या नहीं।’’
‘‘किताब में शेर ? मुझे भी दिखाओ किताब का शेर। मैंने आज तक नहीं देखा। असली शेर तो मैंने बहुत देखे हैं। पहले इस जंगल में बहुत-से शेर थे।
लाओ दिखाओ, किताब कहाँ है ?’’
पप्पू ने किताब लंगूर को दे दी। लंगूर ने एक झपट्टा मारा तो किताब फटते-फटते बची।
‘‘अरे भई, तुम जरा धीरे-धीरे किताब के पन्ने पलटो। मेरे पापा ने लाकर दी है। फट गई तो बस देख लेना !’’ पप्पू चीखा।
लंगूर धीरे-धीरे किताब पलटने लगा-‘‘अरे, तो यह होता है तुम्हारी किताबों का शेर ? लग तो बहुत अच्छा रहा है। रंग भी बहुत चमकीला है। असली शेर के रंग इतने चमकीले नहीं होते। उसके पास से बदबू भी बहुत आती है, जबकि इस शेर में से तो खुशबू आ रही है।’’
‘‘तो यह शेर की खुशबू थोड़े ही है ! यह तो मेरी मम्मी के परफ्यूम की बोतल से कुछ बूँदें इस किताब पर गिर गई थीं।’’ पप्पू बोला।
लंगूर बहुत देर तक किताब उलटता-पलटता रहा तो पप्पू बोर हो गया। चीखकर बोला-‘‘तुम इस किताब का पीछा छोड़ो और शेर के बारे में बताओ। इतनी देर हो गई ! मुझे तेज भूख भी लगी है।’’
‘‘भूख लगी है ? ठहरो, यहाँ पास ही झरबेरी की झाड़ियाँ हैं। उन पर बहुत रसीले बेर लगे हैं। मैं थोड़े-से तुम्हारे लिए ले आता हूँ।’’
लंगूर जाने को हुआ तो पप्पू बोला-‘‘मैं भी तुम्हारे साथ बेर तोड़ने के लिए चलूँगा।’’
‘‘जैसी तुम्हारी मर्जी। मगर मैं तुम्हें बेर नहीं तोड़ने दूँगा। तुम्हारे काँटे चुभ जाएँगे।’’
लंगूर कूदता-फाँदता चला। पप्पू अपनी किताब उठाए उसके पीछे-पीछे आ रहा था कि उसके मुँह से एकाएक चीख निकल गई। मिट्टी के एक ढूह में बनें बिल में एक साँप पूँछ के बल घुस रहा था। लंगूर ने पीछे मुड़कर पूछा-‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘वो काला साँप !’’ पप्पू का घबराहट के मारे बुरा हाल था।
‘‘अरे वह बेचारा दिन-भर का थका-हारा आराम करना चाहता है। तुमसे कुछ नहीं कहेगा।’’
‘‘मगर हमारी किताब वाले साँप के काटने से तो जहर चढ़ जाता है।’’
‘‘तुम्हारी किताब वाला साँप गन्दा होगा। बच्चों को प्यार नहीं करता होगा।’’ लंगूर इधर से उधर कूदता हुआ बोला।
अचानक पप्पू ने देखा कि हवा कुछ सौंधी-सौंधी-सी आ रही है।
‘‘हमें और कितना चलना है ?’’
‘‘बस, अब ज्यादा नहीं।’’
पप्पू को लगा यहाँ कुछ हरियाली है।
‘‘मुझे प्यास लगी है।’’ उसने लंगूर से कहा।
‘‘तो चलो नदी पास में है।’’
‘नदी ?’’ पप्पू खुशी से ताली बजाने लगा-‘‘मैं नदी ही तो ढूँढ़ रहा था। वहीं तो रात को शेर पानी पीने आएगा।’’
‘‘मैं तुम्हारे लिए बेर लेकर आता हूँ। तब तक तुम पानी पी लो।’’ कहता हुआ लंगूर उछलता हुआ चला गया।
पप्पू धीरे-धीरे नदी के पास पहुँचा। बहुत देर तक पानी में अपनी परछाईं देखता रहा। परछाईं हिल रही थी। उसने पीने के लिए हथेली में पानी लिया तो हिलती हुई परछाईं, धुँधली होकर गायब हो गई।
वह पानी पीता रहा, परछाईं बार-बार दिखती और गायब हो जाती।
पप्पू पानी पीकर लौटा तो लंगूर बरगद के पत्ते में बेर ले आया था। वे दोनों बेर खाने लगे। पके-अधपके, खट्टे-मीठे बेर बहुत स्वादिष्ट थे।
‘‘तो अब तुम यहाँ बैठकर शेर के आने का इन्ताजार करोगे ?’’ लंगूर ने पूछा।
‘‘हाँ, मगर...अगर शेर नहीं या तो ? क्या पता उसे आज प्यास न लगे ?’’
लंगूर ने पप्पू को ध्यान से देखा-‘‘तुम सच कहते हो शेर नहीं आएगा। मगर इसलिए नहीं कि उसे प्यास नहीं लगीं।’’
‘‘तो फिर क्यों नहीं ?’’
‘‘इसलिए कि इस जंगल में एक ही शेर बचा था। उसे भी चिड़ियाघर वाले पकड़कर ले गए।’’
पप्पू के आँसू निकल आए। वह शेर को ढूँढ़ने जंगल में आया था और शेर चिड़ियाघर में था। उसकी कहानी की किताब खत्म हो गई थी।
तितली की खुशी
तितली के परों पर कितने सारे रंग थे-पीला, काला, लाल। वह एक अमलताश के
पेड़ के ऊपर मँडरा रही थी। कभी इधर जाती, कभी उधर। कभी पेड़ों के पत्तों
में छिप जाती तो कभी डाल पर बैठती। अचानक एक कार तेजी से दौड़ती वहाँ से
गुजरी। तितली को न जाने क्या सूझा कि अमलताश की फली पर झूला झूलना छोड़कर
वह कार के पीछे दौड़ी। लेकिन तितली को क्या पता कि उसे उड़ने में भारी
मशक्कत करनी पड़ रही थी। तितली थोड़ी देर तक तो कार के पीछे दौड़ी मगर फिर
हाँफने लगी। थक कर वहीं लगे नीम के पेड़ पर बैठ गई। उसकी समझ में नहीं आ
रहा था कि सड़क पर चलते हुए कार की तरह तेजी से कैसे कोई उड़ सकता है।
तितली की जब थकान उतरी तो वह फिर से उड़ चली। नीम के कड़वेपन से दूर अपने घर अमलताश वापस आई। दोपहर हो गई थी। तितली का भी सोने का समय। तभी उसने बहुत-से बच्चों को एक से कपड़े पहनकर लौटते देखा वे सब पढ़कर लौट रहे थे। ऊँघती हुई तितली की आँखों से जल्दी ही बच्चे ओझल हो गए।
तभी तितली को ऊँ-ऊँ की आवाज सुनाई दी। उसने इधर-उधर देखा। एक छोटा-सा बच्चा अपने कन्धे पर भारी-भरकम बस्ता लटकाए रोता, आँख मलता हुआ वापस आ रहा था। तितली की समझ में नहीं आ रहा है कि बच्चा क्यों रो रहा था ? क्या इसलिए कि वह दूसरे बच्चों से पीछे छूट गया था या इसलिए कि उसके कन्धे पर लटका बस्ता इतना भारी था कि उससे उठाए नहीं उठ रहा था। तितली का मन किया कि वह जाकर बच्चे से पूछे कि बेटे क्यों रो रहे हो ? लेकिन क्या जो वह बोलती, बच्चा उसे समझ लेता। तब फिर क्या करे तितली ? उस रोते बच्चे को कैसे चुप कराए। अचानक उसे एक उपाय सूझा। वह पेड़ की डाल से नीचे उतरकर बच्चे के सिर पर मँडराने लगी। फर-फर उसके कान के पास उड़ने लगी। बच्चे ने रोती अधमुँदी आँखों से देखा। फिर उसकी आँखें पूरी खुल गईं। उसके मुँह से ऊँ-ऊँ की आवाज निकलनी बन्द हो गई। वह इतने सुन्दर पंखों वाली तितली को इतने पास उड़ते देख हँसने लगा। उसके मोतियों से सुन्दर दाँत चमकने लगे बच्चे को हँसते देख तितली बहुत खुश हुई। अब वह बच्चे के सामने ही उड़ने लगी। बच्चा उसे पकड़ने को हाथ बढ़ाता तो वह कुछ और ऊँची उड़ जाती। जैसे कह रही हो-‘‘अब पकड़कर दिखाओ मुझे बच्चू !’’ बच्चा ऊँचा कूदने की सोचता मगर कन्धे पर लटका भारी बस्ता उसे ऐसा न करने देता।
अचानक बच्चे को लगा कि यह भारी बस्ता ही उसकी सारी मुसीबतों की जड़ है। वह उसे तितली के साथ नहीं दौड़ने दे रहा है। बस उसने बस्ते को एक ओर जमीन पर पटका। अब वह आजाद था। अब वह था और तितली थी।
तितली उसे एक पार्क में ले गई। वह फूलों पर बैठी, बच्चे ने उसे देखा। वह उसके पास पहुँचा तो वह उड़ कर फव्वारे पर बैठ गई। वहाँ ढेर सारे फूल खिले लेता। मगर आज तो उसे तितली पकड़नी थी। उसे छूना था। उसके साथ खेलना था।
इस तरह तितली कभी आगे उड़ती तो कभी पीछे। कभी छिप जाती। बच्चा व्याकुल हो उसे ढूँढ़ता। फिर वह छिपने की जगह से वापस निकल आती। तितली उड़ती रही। बच्चा उसके पीछे दौड़ता रहा और बच्चे को अपनी माँ दिखी। माँ के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें खिंची थीं। इतनी देर हो गई। स्कूल कब बन्द हो गया। सारे बच्चे अपने-अपने घर लौट आए। माँ ने भी बच्चे को देख लिया लेकिन बच्चे को होश कहाँ ? वह तो तितली के पीछे भाग रहा था।
माँ ने पास आकर बच्चे को झिंझोड़ा। कहा-‘‘छुट्टन, छुट्टन, तू कहाँ भागा जा रहा है ?’
बच्चे ने उड़ती तितली की तरफ इशारा किया-‘‘माँ वो तितली ?’’ अब तक तितली एक पेड़ की पत्तियों के बीच छिप गई थी और खुशी-खुशी माँ बेटे की बातें सुन रही थी।
‘‘लेकिन तेरा बस्ता कहाँ है ?’’ माँ ने पूछा।
‘‘बस्ता, अरे हाँ वह तो रास्ते में।’’ छुट्टन ने याद करते हुए कहा।
‘‘तो तू तितली के पीछे अपना बस्ता भी रास्ते में फेंक आया। चल बता, कहाँ डालकर आया है ?’’ कहती हुई माँ बच्चे को साथ लेकर चल दी। बच्चा अब भी पीछे मुड़-मुड़कर तितली को देख रहा था। पता नहीं, वह कहाँ गई ? उधर तितली खुश थी। उसने रोते बच्चे को चुप करा दिया था और वह अपनी माँ के साथ था। तितली फिर से पत्तियों के बीच छिपकर सोने की तैयारी करने लगी।
तितली की जब थकान उतरी तो वह फिर से उड़ चली। नीम के कड़वेपन से दूर अपने घर अमलताश वापस आई। दोपहर हो गई थी। तितली का भी सोने का समय। तभी उसने बहुत-से बच्चों को एक से कपड़े पहनकर लौटते देखा वे सब पढ़कर लौट रहे थे। ऊँघती हुई तितली की आँखों से जल्दी ही बच्चे ओझल हो गए।
तभी तितली को ऊँ-ऊँ की आवाज सुनाई दी। उसने इधर-उधर देखा। एक छोटा-सा बच्चा अपने कन्धे पर भारी-भरकम बस्ता लटकाए रोता, आँख मलता हुआ वापस आ रहा था। तितली की समझ में नहीं आ रहा है कि बच्चा क्यों रो रहा था ? क्या इसलिए कि वह दूसरे बच्चों से पीछे छूट गया था या इसलिए कि उसके कन्धे पर लटका बस्ता इतना भारी था कि उससे उठाए नहीं उठ रहा था। तितली का मन किया कि वह जाकर बच्चे से पूछे कि बेटे क्यों रो रहे हो ? लेकिन क्या जो वह बोलती, बच्चा उसे समझ लेता। तब फिर क्या करे तितली ? उस रोते बच्चे को कैसे चुप कराए। अचानक उसे एक उपाय सूझा। वह पेड़ की डाल से नीचे उतरकर बच्चे के सिर पर मँडराने लगी। फर-फर उसके कान के पास उड़ने लगी। बच्चे ने रोती अधमुँदी आँखों से देखा। फिर उसकी आँखें पूरी खुल गईं। उसके मुँह से ऊँ-ऊँ की आवाज निकलनी बन्द हो गई। वह इतने सुन्दर पंखों वाली तितली को इतने पास उड़ते देख हँसने लगा। उसके मोतियों से सुन्दर दाँत चमकने लगे बच्चे को हँसते देख तितली बहुत खुश हुई। अब वह बच्चे के सामने ही उड़ने लगी। बच्चा उसे पकड़ने को हाथ बढ़ाता तो वह कुछ और ऊँची उड़ जाती। जैसे कह रही हो-‘‘अब पकड़कर दिखाओ मुझे बच्चू !’’ बच्चा ऊँचा कूदने की सोचता मगर कन्धे पर लटका भारी बस्ता उसे ऐसा न करने देता।
अचानक बच्चे को लगा कि यह भारी बस्ता ही उसकी सारी मुसीबतों की जड़ है। वह उसे तितली के साथ नहीं दौड़ने दे रहा है। बस उसने बस्ते को एक ओर जमीन पर पटका। अब वह आजाद था। अब वह था और तितली थी।
तितली उसे एक पार्क में ले गई। वह फूलों पर बैठी, बच्चे ने उसे देखा। वह उसके पास पहुँचा तो वह उड़ कर फव्वारे पर बैठ गई। वहाँ ढेर सारे फूल खिले लेता। मगर आज तो उसे तितली पकड़नी थी। उसे छूना था। उसके साथ खेलना था।
इस तरह तितली कभी आगे उड़ती तो कभी पीछे। कभी छिप जाती। बच्चा व्याकुल हो उसे ढूँढ़ता। फिर वह छिपने की जगह से वापस निकल आती। तितली उड़ती रही। बच्चा उसके पीछे दौड़ता रहा और बच्चे को अपनी माँ दिखी। माँ के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें खिंची थीं। इतनी देर हो गई। स्कूल कब बन्द हो गया। सारे बच्चे अपने-अपने घर लौट आए। माँ ने भी बच्चे को देख लिया लेकिन बच्चे को होश कहाँ ? वह तो तितली के पीछे भाग रहा था।
माँ ने पास आकर बच्चे को झिंझोड़ा। कहा-‘‘छुट्टन, छुट्टन, तू कहाँ भागा जा रहा है ?’
बच्चे ने उड़ती तितली की तरफ इशारा किया-‘‘माँ वो तितली ?’’ अब तक तितली एक पेड़ की पत्तियों के बीच छिप गई थी और खुशी-खुशी माँ बेटे की बातें सुन रही थी।
‘‘लेकिन तेरा बस्ता कहाँ है ?’’ माँ ने पूछा।
‘‘बस्ता, अरे हाँ वह तो रास्ते में।’’ छुट्टन ने याद करते हुए कहा।
‘‘तो तू तितली के पीछे अपना बस्ता भी रास्ते में फेंक आया। चल बता, कहाँ डालकर आया है ?’’ कहती हुई माँ बच्चे को साथ लेकर चल दी। बच्चा अब भी पीछे मुड़-मुड़कर तितली को देख रहा था। पता नहीं, वह कहाँ गई ? उधर तितली खुश थी। उसने रोते बच्चे को चुप करा दिया था और वह अपनी माँ के साथ था। तितली फिर से पत्तियों के बीच छिपकर सोने की तैयारी करने लगी।
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